त्वम्ग्रे गृहपतिस्त्वं होता नो अध्वरे। त्वं पोता विश्ववार प्रचेता यक्षि यासि च वार्यम्।। : – ऋग्वेद
हे परमेश्वर ! आप हमारे हृदय मन्दिर के स्वामी हैं, उपासना यज्ञ के ऋत्वक और याजक हैं, आप सबको पवित्र करने वाbे, परम चैतन्य स्वरूप और वरण करने योग्य हैं। हमें अच्छे आचार-विचार रखने और कल्याण मार्ग की ओर प्रेरित कीजिए।
यज्जाग्रतो दूर मुदैति दैवं तदुसुप्तस्य तथैवैति । दूरग्ममं ज्योतिषांज्योतिरेकं, तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु।। – यजुर्वेद
जो मन जाग्रत अवस्था में दूर-दूर तक चला जाता है वही सोते हुए स्वप्नावस्था में भी चला जाता है, ऐसा दूर-दूर तक प्रकाश किरणों की तरह गति करने वाला मन, जो कि प्रकाशों में से एक प्रकाश है, ऐसा मन कल्याणकारी विचारों वाला हो ।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना । न चाभावयतः शान्तिर शान्तस्य कुतः सुखम ।। : – श्रीमद् भगवद् गीता
न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चय बुद्धि नहीं होती और उसके अन्तःकरण में भावना भी नहीं होतीतथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और अशान्त मनुष्य को सुख कहां?
मनः शौचं कर्म शौचं कुल शौचं च भारत । शरीर शौचं वाक्शौचं शौचं पःविधं स्मृतम्।।: -महाभारत
मन की शुद्धि, आचरण की शुद्धि, कुल की शुद्धि, शरीर और वाणी की शुद्धि- ये पांच प्रकार की शुद्धियां पवित्रता के लिए ज़रूरी मानी गई हैं। “पःस्वेतेषु शौचेषु ह्रदि शौचं विशिष्यते’ (महाभारत) के अनुसार इन पांचों प्रकार की शुद्धियों में हृदय की (मन की शुद्धि) पवित्रता सर्वश्रेठ है।
मति वर्चः कर्म सुखानुबन्धं सत्वं विधेयं विशदा च बुद्धिः। ज्ञानं तपस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोगाः।। – चरक संहिता
सुख देने वाली मति, सुखकारक वचन और कर्म, अपने अधीन मन, शुद्ध पाप रहित बुद्धि जिनके पास है और जो ज्ञान प्राप्त करने, तपस्या करने और योग सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं उन्हें शारीरिक एवं मानसिक, कोई भी रोग नहीं होते।
जर्हि भावइ तर्हि जाहि जियं जं भावई करि तं जि। केम्वई मोक्खु ण अत्थि पर चित्तई सुदिध् ण जं जि ।। -योगीन्दु (जैन सूक्ति)
हे जीव ! तू चाहे जहां जा और जो चाहे कर्म कर परन्तु जब तक तेरा चित्त (मन) शुद्ध नहीं होगा तब तक किसी तरह भी तुझे मोक्ष नहीं मिल सकता।
अभित्थरेण कल्याणे पापा चित्तं निवारये । दन्धं हि करोतो पुÄजं पापस्मि रमतीमनो ।। : – धम्मपद
पुण्य कर्म करने में शीघ्रता करे। पाप कर्म से मन को निवृत्त रखे। पुण्य कर्म करने में शिथिलता या आलस्य करने वाल व्यक्ति का मन पाप में रमने लगता है।
आपस में एक सा मन रखो, अभिमानी न रहो, दीनों के साथ संगति रखो, अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न हो (समझो), बुराई के बदले किसी
से बुराई न करो, जो बातें सबके निकट भटी हैं उनकी चिन्ता किया करो, जहां तक हो सके, तुम भरसक सब मनुष्यों के साथ मेb मिलाप रखो
– न्यू टेस्टामेण्ट (बाइबिल)
अल्लाह तुम्हारी शक्ल व सूरत और तुम्हारे शरीर को नहीं देखता बल्कि तुम्हारे दिल को देखता है यानी अल्लाहतआला की ओर से बदला लेने का व्यवहार “इखलास’ और दिल की नीअत (इच्छा) के अनुसार होगा। लोगो ! अपने कामों में इखलास पैदा करो। अल्हलातआला वही काम कुबूल करता है जो इखलास (मन की सच्चाई और पवित्रता) से हो । – हदीस शरीफ
गायत्री मन्त्र द्वारा, सारे विश्व को उत्पन्न करने वाले परमात्मा का जो उत्तम तेज है, उसका ध्यान करने से बुद्धि की मलिनता दूर हो
जाती है, धर्माचरण में श्रद्धा और योग्यता उत्पन्न होती है । – महर्षि दयानन्द सरस्वती