चरित्र निर्माण एवं नैतिक शिक्षा का स्वास्थ्य से गहरा सम्बन्ध है, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास होता है । शरीर पूर्ण स्वस्थ, निरोग और हल्का रहे, इसके bिए आवश्यक है, कि हम चित्त को प्रसन्न रखें । रोगों के कारण ही मन में विकार उत्पन्न होते हैं तथा हम विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत कर रोगी हो जाते हैं । उत्तम स्वास्थ्य और आरोग्य के लिए हमे सक्रिय जीवन बिताना चाहिए
आयुर्वेद में चरक संहिता, अïांग öदय, सुश्रुत संहिता, भाव प्रकाश आदि प्रमुख ग्रन्थ चारित्रिक शिक्षाओं से भरे हैं । आयुर्वेद शास्त्र मनुष्य को शरीरिक एवं मानसिक दृïि से स्वस्थ बनाता है । चरित्रवान व्यक्ति ही अपने समाज, राïएव ं विश्व का कल्याण करने की क्षमता रखता है । द्यृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, घी, विद्या, सत्य, अक्रोध ये धर्म के दस bक्षण ही चरित्रवान मनुष्य के bक्षण हैं । आयुर्वेद के चरित्र निर्माण ग्रन्थ अष्टांग हृदय 2/25 में ‘सम्पद्धित्स्वेकमना हेतावीष्र्येत फले न तु’, सम्पत्ति तथा विपत्ति में एक मन होना चाहिए ।कारण में ईष्र्या करे, उसके फb में ईष्र्या न करें ।
भाव प्रकाश 4/251 में ‘काले हितं मितं संवादि मधुरं वदेत । मुन्जीत मधुर प्रायं स्निग्ध कालहितं मितम्’ । सयम पर हित मित (नपा- तुला) सत्य, प्रसन्गानुसार एवं मीठा वचन बोले, समय पर अधिकतया मधुर रसयुक्त, स्नेहयुक्त हित (धारण एवं पोषण) तथा मित भोजन करें । आचरण से पतित मनुष्य स्वयं अपना, समाज का और विश्व का अहित करता है । चरित्र से बढ़कर मनुष्य के लिए कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। चरित्रहीन व्यक्ति के लिए ऐश्वर्य प्राप्ति, यश का कोई महत्व नहीं है ।
मनुष्य अपने चरित्र एवं भाग्य का निर्माता सवयं है । चरित्र निर्माण का तात्पर्य सद्गुणों, सद् विचारों, अच्छी आदतों एवं गुणों के सम्न्वय से है । धर्म पूर्वक नियमित आचरण करके हम पूर्ण आयु पा्रपत कर सकते हैं । आज की युवा पीढ़ी खोखली हो गई है ।
आज की युवा पीढ़ी विज्ञान पर ही विश्वास करती है । आज विज्ञान द्वारा ज्यों-ज्यों नई-नई बीमारियों की दवा खोजी जा रही है त्यों-त्यों रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है । एक बीमारी की दवा खोजी जाती है, तुरन्त नई बीमारी शुरु हो जाती है । आज के वैज्ञानिक इस बात पर विश्वास करते हैं, कि संसार में तरह-तरह के बिजाणुओ की संख्या बढ़ रही है, परन्तु आयुर्वेद का मानना है, कि अन्तःकरण के कलुषित एवं असत्य आचार विचार, व्यवहार भी रोग की उत्पत्ति का एक बड़ा कारण है । बीमारी हमारे स्वभाव तथा कार्य के कारण भी होती है ।
हमारे ऋषि-मुनि, विद्वान तथा त्रिकालदर्श थे । हमारे पूर्वज शरीर की बनावट एवं स्नायु संचालन से पूर्ण परिचित थे इसीलिए उन्होंने झूठ, छल, कपट, ईष्र्या, द्वेष, क्रोध आदि विकारों से दूर रहने की प्ररेण देते थे । एड्स जैसे घातक रोग को 85% प्रसार अनियंत्रित यौन सम्बन्धो के माध्यम से होता है । उद्वेग, चिन्ता, क्रोध, निराशा, भय, कामुकता आदि मनो- विकारों का डॉक्टरी इbाज नही है । इन रोगों का इलाज योगासन, ध्यान एवं प्राणायाम द्वारा सम्भव है ।
आचार्य चरक ने जनपदोवंसनीय नामक तृतीय अध्याय में रोगों का मूb कारण चित्त विकार अथवा अशुद्ध चित्त को बताया है । अशुद्ध चित्त के तीव्र संवेग से ही रोगों का जन्म होता है । स्वस्थ व्यक्ति उसी को कहा जाता है, जिस व्यक्ति के त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) सम हों । जिसकी अ¾ि और धातु सम है, मल और क्रिया सम हैं, जिसकी आत्मा, इन्द्रियां और मन प्रसन्न (निर्मल) हैं । अपनी प्रकृति में स्थित रहने वाला स्वस्थ तथा प्राकृत भव स्वास्थ्य है । विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार इस समय व्यायाम और परिश्रम करने वाले जापानियों की आयु विश्व में सर्वाधिक है ।वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे खून में कैंसर कोशिकाएं बनती बिगड़ती रहती है तथा रोगो- त्पत्ति का स्थान बदलती रहती हैं । व्यायाम से कैंसर की कोशिकाओं पर नियंत्रण पाया जा सकात है । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा कि सन् 2020 तक एलोपैथिक एंटीबायोटिक मनुष्य के शरीर पर असर करना बन्द कर देंगी यानि शरीर एंटीबायोटिक के प्रति इम्यून हो जाएगा । यह स्थिति आने से पहले विश्व को सचेत हो जाना चाहिए कि तन एलोपैथिक पद्धति कैसे निरोग रख पाएगी । आज चारों तरफ मारकाट, घसू खारे ली, स्वाथर् परायणता, अनाचार, भ्रस्ताचर्य, व्यभिचार, अत्याचार का बोbबाbा है छात्रों, नवयुवकों में अनुशासनहीनता, गुरुजनों के प्रति अवज्ञा चरम पर है ।
चरित्र निर्माण व्यक्ति के श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा आचरण से बनता है । आज हमारे विद्याbयों में जो शिक्षा दी जा रही है, उसमें इन बातों का अभाव है । आत हम भौतिकता की अंधी दौड़ में अपने स्वास्थ्य, चरित्र, आचार विचार, सभी को नï कर रहे हैं । पाश्चात्य जगत भोगवादी संस्कृति से ऊलब कर भारतीय अध्यात्म की ओर लौट रहा है, परन्तु हम भोगवाद की ओर बढ़ रहे हैं । हमें भौतिकता के साथ अपनी संस्कृति का अध्ययन और उसके सिद्धांतों का पाbन भी करना होगा । ऐसी स्थिति में चरित्र निर्माण और अच्छा चरित्र रखना ही सर्वश्रेð है । कहा भी गया है कि धन गया तो कुछ नही गया, स्वास्थ्य गया तो बहुत कुछ गया, किन्तु चरित्र गया या चरित्र-हीन हुए तो सब कुछ गवाया सब चीμजों से हीन हो गए ।
पं. आनन्द वल्लभ जोशी ‘अन्जान’
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